अभिमान से होता है पतन, ईर्ष्यालु व्यक्ति जलते हुए कोयले के समान -मुनि आदित्यसागर जी महाराज
केकड़ी। व्यक्ति कितनी भी गलतियां क्यों न करें, फिर भी धर्म में उससे बचने के उपाय हैं। जरूरत सिर्फ समझ को सही करने की है। सही समझ के साथ किए गए पुरुषार्थ से व्यक्ति अपनी भूमिका में आत्मकल्याण के मार्ग में आगे बढ़ सकता है। अभिमान को सम्मान में परिवर्तित करने का प्रयास करना चाहिए। अभिमान से विद्या गौण होती है, विनय व समकित चला जाता है। अभिमान तमाम गुणों का समाप्त कर देता है। अभिमान व्यक्तित्व का पतन है और स्वाभिमान जीवन का सम्मान है। यह बात श्रुत संवेगी मुनि श्री आदित्यसागर जी महाराज ने यहां दिगम्बर जैन चैत्यालय भवन में चल रही ग्रीष्मकालीन प्रवचनमाला के अंतर्गत गुरुवार को सुबह धर्मसभा में प्रवचन करते हुए कही।
उन्होनें मेरी भावना काव्य के एक सूक्तक 'होऊं नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे, गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे' की व्याख्या करते हुए कहा कि व्यक्ति को अपनी दृष्टि, दोष पर नहीं, गुणों पर रखनी चाहिए। हमें दूसरों से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। यदि हम आज किसी को आश्रय देते हैं, तो हमें भी भविष्य में आश्रय मिलेगा। हमें किसी के साथ विश्वास घात नहीं करना चाहिए। हमें व्यापार में नकली माल नहीं बेचना चाहिए, न ही नकली व्यवहार करना चाहिए। यदि हमें किसी के विचार पसंद ना आए, तो विद्रोह नहीं करना चाहिए। यदि किसी में इर्ष्या के भाव आते हैं, तो वह उस जलते हुए कोयले के समान हो जाता है, जिसे दूसरों पर फेंकने वाला पहले स्वयं जलता है, बाद में दूसरा।
उन्होनें कहा कि जीव अपने निज की भावना को पवित्र नहीं कर पा रहा है, इससे उसकी बाहर की पर्याय भी पवित्र नहीं हो रही है। नाम कर्म व आयु कर्म की अपेक्षा से सामान्य मनुष्य व अरिहंत प्रभु एक ही है, पर अंतरंग की भावना से अरिहंत विशेष है। उनके ज्ञान में संसार के सभी चराचर पदार्थ एक साथ स्पष्ट झलकते हैं। जिनवाणी को यदि सम्यकदृष्टि पढ़ता है, तो उसके रहस्य को सही समझता है और मिथ्या दृष्टि पढ़ता है, तो उसके रहस्य को नहीं समझ पाता।
धर्म सभा में मुनि श्री सहजसागर जी महाराज ने प्रवचन करते हुए कहा कि व्यक्ति के जीवन के पूंजी उसके विचार हैं। विचार ही मनुष्य को पूजनीय व सम्माननीय बनाते हैं। जो समय, श्रम व धन की बचत करें, वही श्रेष्ठ विचार है। हमारे विचार हमारी परिणति को बताते हैं। हमारी विचारधारा हमारे पूर्व उपार्जित कर्मों के उदय से प्रभावित रहती है, जिससे हमारे स्वभाव में परिवर्तन आना मुश्किल हो जाता है। एक बार यदि विचार का दीपक बुझ जाए तो हमारा आचरण अंधा हो जाता है।हम अपने विचारों को सत्संगति से बदल सकते हैं। यदि हमारा आचरण गलत हो, तो हमारा जीवन पतन को प्राप्त होता है। यदि हमारा मन रूपी बर्तन छेद वाला हो तो उसमें अच्छे विचार संग्रहित नहीं हो सकते हैं।
धर्मसभा के प्रारम्भ में पदमचंद, सुभाषचंद, मुकेश व दैविक गदिया परिवार ने आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज के चित्र का अनावरण कर दीप प्रज्वलन किया तथा विद्या समयसागर यात्रा संघ की ओर से मुनि आदित्यसागर जी महाराज व मुनिसंघ के पाद प्रक्षालन कर उन्हें शास्त्र भेंट किये गए।
युवाओं के लिए विशेष सत्र
दोपहर को दिगम्बर जैन चैत्यालय भवन में युवाओं के लिए एक विशेष सत्र का आयोजन किया गया, जिसमें श्रुत संवेगी मुनि श्री आदित्यसागर जी महाराज ने सभा में उपस्थित युवा समुदाय को संबोधित किया और उन्हें 'लाइफ मैनेजमेंट एंड हैप्पी लाइफ' के लिए प्रेरणादायी टिप्स प्रदान किये।



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