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दोनों समाज हमेशा देश-धर्म की रक्षा में अव्वल, कौन करता है यह जाट v/s राजपूत की राजनीति


चुनाव जीतता है नेता, हारता है नेता। किंतु विवाद में पिसती है जनता, पिटती है जनता। सामाजिक तानाबाना इन चुनावों ने लगातार कमजोर किया है। 

साथ बैठनें वाले, सुख-दुख में साथ रहने वाले इन चुनावों के कारण आजीवन दुश्मन बन रहे हैं। नेता जीत-हारकर फिर एक थाली में बैठ जाते हैं, लेकिन समाजों आई दूरियां कभी नहीं मिटतीं। 

राजस्थान में जाट-राजपूत समाज की दूरियां इसी  चुनाव प्रणाली का नतीजा है, अन्यथा दोनों में विवाद का कोई कारण है ही नहीं। सबसे ताजा उदाहरण चूरु और बाड़मेर है। वरना दोनों सीटों पर पिछले चुनाव में ही जाट-राजपूत साथ-साथ थे। 

जो लोग न आम हैं और न ही किसान हैं, वो चुनाव में सामंतवाद बनाम किसान विवाद करके स्वाद ले रहे हैं। दोनों समाज हमेशा देश-धर्म की रक्षा में अव्वल रहे हैं, किंतु हमारे ही जातिवादी नेताओं ने सामाजिक मोर्चे पर दोनों को खूब लड़ाया है। दोनों की लड़ाई में आज तक कोई नेता नहीं मरा है, लेकिन उनकी लगाई आग में कई आम युवा शहीद हुए हैं। 

जो जितना पढ़ा-लिखा है, वही दोनों में सबसे ज्यादा जहर फैला रहा है। आम जाट या राजपूत में आज भी कोई विवाद नहीं है, बल्कि कई जगह अटूट मित्रता है। इस बीमारी को बढ़ने से रोकने के लिए सामाजिक जागरूकता और सोशल पर सख्ती बेहद जरुरी है।

साभार- राम गोपल जर्नलिस्ट, जयपुर 

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