दो मुनि संघों का आनंदमयी मिलन, सैंकड़ों श्रद्धालु हुए भावविभोर
केकड़ी। दिगम्बर जैन आचार्य विशुद्धसागरजी महाराज के दो शिष्य मुनि आदित्यसागरजी महाराज व मुनि समत्वसागरजी महाराज का आज मंगलवार को केकड़ी में मिलन हुआ। इस विशेष मौके पर भारी संख्या में दिगम्बर जैन समाज के महिला-पुरुष उमड़ पड़े। दोनों मुनि संघ जब यहां तीन बत्ती चौराहे के समीप बालिका विद्यालय के बाहर मिले, तो उस दौरान मौजूद सैंकड़ों श्रद्धालुओं के जय-जयकार से वातावरण गूंज उठा।
यह प्रसंग उस समय उपस्थित हुआ जब शाहपुरा की ओर से जयपुर के लिए विहार कर रहे मुनि समत्वसागरजी महाराज का ससंघ केकड़ी नगर में मंगल प्रवेश हुआ। इस दौरान केकडी में पहले से ही विराजमान मुनि आदित्यसागरजी महाराज भी संघ में शामिल मुनि अप्रतिमसागरजी महाराज, मुनि सहजसागरजी महाराज व क्षुल्लक श्रेयसागरजी महाराज के साथ उनकी अगवानी करने पहुंचे। सभी संत स्नेहसिक्त भाव से परस्पर गले मिले। पैदल विहारी जैन मुनियों के दुर्लभ मिलन के इस भावुक दृश्य ने लोगों को भावविभोर कर दिया। मुनि समत्वसागरजी के साथ संघ में मुनि शीलसागरजी महाराज शामिल है।
इससे पहले दिगम्बर जैन समाज के अध्यक्ष भंवरलाल बज की अगुवाई में समाज के महिला-पुरुषों ने भैरू गेट चौराहे पर मुनि समत्वसागरजी महाराज ससंघ की अगवानी की। बाद में दोनों मुनिसंघों को ढोल बाजों के साथ शोभायात्रा जुलूस के रूप में देवगांव गेट के समीप स्थित दिगम्बर जैन चैत्यालय भवन लाया गया। जुलूस अजमेरी गेट व घण्टाघर होता हुआ चैत्यालय पहुंचकर धर्मसभा में परिवर्तित हो गया।
धर्मसभा में श्रुत संवेगी मुनि आदित्यसागरजी महाराज ने ग्रीष्मकालीन प्रवचनमाला के अंतर्गत मेरी भावना महाकाव्य की एक उक्ति 'परधन वनिता पर न लुभाऊं, संतोषामृत पिया करो' की व्याख्या करते हुए कहा कि संतोष अमृत के समान होता है, जो जीवन को शाश्वत सुख से भर सकता है। संतोषी व्यक्ति पराये धन का लोभ नहीं करता। व्यक्ति को संतोषी बनकर जीवन में हर दिन, हर पल, हर क्रिया को महोत्सव की तरह मनाना चाहिए।
उन्होंने हर जगह समाज में घटते सामंजस्य पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि सभी जगह कुछ इस तरह के लोग होते हैं, जो सभी को दुखी करते है। इनमें टांग खींचने वाले, हमेशा कमियां ढूंढने वाले व पीठ पीछे निंदा करने वाले शामिल हैं। जैन समाज एक बौद्धिक व विवेकवान लोगों की समाज है। यहां किसी भी व्यवस्था के लिए चुनाव नहीं होना चाहिए, बल्कि योग्य व अनुभवी व्यक्तियों को उत्तरदायित्व सौंपना चाहिए। मंदिर किसी व्यक्ति विशेष का नहीं होता, बल्कि देव, शास्त्र, गुरु का होता है।
धर्मसभा में मुनि श्री समत्वसागरजी महाराज ने भी प्रवचन करते हुए कहा कि जीवन में ज्येष्ठता की प्राप्ति होने में पुण्योदय की भूमिका है, परंतु श्रेष्ठता की प्राप्ति चरित्र धारण करने से होती है। जिस प्रकार आटे की चक्की में नीचे वाला पाट स्थिर होता है और ऊपर वाला पाट गतिशील होता है, उसी प्रकार समाज में वृद्धजन स्थिर रहकर मार्गदर्शक की तरह होते हैं व युवा वर्ग गतिशील। इसी संतुलन से समाज में चैतन्यता आती है। यदि जीवन में ज्येष्ठता एवं श्रेष्ठता प्राप्त करना है तो श्रेष्ठ मुनिराजों की सेवा करनी चाहिए।
प्रारम्भ में श्रीमती मीनादेवी, राकेश, संजीव व राजीव शाह परिवार ने आचार्य श्री विशुद्धसागरजी महाराज के चित्र का अनावरण कर दीप प्रज्वलन किया तथा शुभकामना परिवार अरिहंत शाखा की ओर श्रावकों ने मुनि श्री आदित्यसागरजी महाराज व मुनि श्री समत्वसागरजी महाराज ससंघ के पाद प्रक्षालन किये। धर्मसभा का संचालन महावीर टोंग्या ने किया। सभा के दौरान शाहपुरा, जयपुर, इंदौर, भोपाल, कोटा, बूंदी आदि स्थानों से आये श्रावकों ने मुनिसंघ के समक्ष श्रीफल अर्पित किए।





Post a Comment